kiss a tale एक कथा को चूमें, और खुशी से झूमें हम ... क़िस्से ठिलाते, खिलखिलाते - एक प्यारी सी अनुभूति, पॉडकास्ट, दृश्य-श्रव्य, कथन-श्रवण...

Saturday, May 18, 2024

काला चोर (1956) रेडियो नाटक

काला चोर (1956) रेडियो नाटक

केशवचंद्र वर्मा
(23 दिसम्बर 1925, फ़ैजाबाद – 25 नवम्बर 2007)
केशवचंद्र वर्मा के मञ्च नाटक का रेडियो रूपांतरण

रूपांतरकार: अनुराग शर्मा


पात्र
काला चोर
शीला (जग्गू की बड़ी बहन)
जग्गू (एक किशोर)
सुरेश (जग्गू का मित्र)
***

अनुराग शर्मा
सुरेश: जग्गू, ओ जग्गू! कहाँ छिपा बैठा है भई? न प्लेग्राउंड में दिखता है, न किसी दोस्त के घर में!
शीला: लो आ गये तुम्हारे सगे। जाओ बाहर खेलो थोड़ी देर। हर समय जासूसी उपन्यासों में घुसे रहते हो।
जग्गू: अरे यार, फिर आ गया, कोई मुझे किताब पढ़ने नहीं देता है। (चिल्लाकर) ... अरे इधर हूँ, स्टडी में। यहीं आ जा।

[आती हुई पदचाप]

सुरेश: जग्गू, कभी बाहर भी निकला कर्। हर समय किताब… अरे ओ जंगली! क्या-क्या पढ़ता रहता है हर वक्त बैठा बैठा? चल उठ तुझे बड़ी मजेदार बात बताऊँ....
जग्गू: अरे तुम क्या मजेदार बताओगे। इसे देखो, यह किताब नई लाया हूँ। सचमुच बड़ी मजेदार है। ध्यान से सुनो... (नाटकीय अंदाज़ में) जब काला चोर, घर से निकलकर, छत पर से नीचे कूदा तब यह पुलिस इंस्पेक्टर भी उसके पीछे-पीछे धड़ाम से कूद पड़ा। (अति-उत्साहित) ... काले चोर ने आव देखा न ताव, बस उसने धड़ से निकाली पिस्तौल, और चला दी, ढिश्क्यूँ, ढिश्क्यूँ...  और पु... पुलिस इंस्पेक्टर, (हँसता है) उसके तो होश ही उड़ गये ...
सुरेश: (हँसता हुआ) अच्छा, अच्छा; बड़ा मजा आ रहा है, घरघुस्सू। यहाँ बिस्तर पर पड़े-पड़े पिस्तौल, मुठभेड़ और चोर की बातें पढ़कर बड़ा मजा आ रहा है। अगर काला चोर सचमुच सामने आ धमकता तो फिर हजरत, तुम्हारी सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती।
जग्गू: (उत्साह से) क्या कहते हो? मैं होता? ... अरे, तुम मुझे नहीं जानते। मैं होता तो ऐसा कूद-कर पकड़ता कि फिर काला चोर एक कदम नहीं चल सकता था। भागना तो दूर की बात ... मैं तो झपटकर चटपट उसकी गर्दन नाप लेता। क्या समझते हो तुम जग्गू को?
सुरेश: (हँसते हुए) कुछ नहीं, कुछ नहीं। मैं तो ठीक से समझता हूँ जग्गू को। अच्छा, श्रीमान जगदेव जी जग्गू, साहब बहादुर, अब आप तैयार हो जाइए, मैं अभी सबको लेकर आता हूँ। मेला देखने चलेंगे।
जग्गू: हाँ हाँ चलूंगा। तुम तैयार होकर आ जाओ। बस किताब में अब दस ही पन्ने रह गए हैं। तुम्हारे आने तक मैं इसे पूरी पढ़ लूंगा। तुम आ जाओगे तब तक न?
सुरेश: (बाहर जाते हुए) हाँ, हाँ। 20-25 मिनट में आता हूँ। तैयार रहना।
[जाती हुई पदचाप, किताब के पन्ने पलटने की आवाज़]
जग्गू: (किताब के पन्ने पलटते हुए) क्या गज़ब की कहानी है। इतनी देर से बैठे-बैठे पढ़ते हुए पीठ दुख गयी। बिस्तर पर लेटकर आराम से पढ़ता हूँ।
जग्गू: [धीमे होती हुई, पढ़ने की आवाज़] घनी, अंधेरी रात में... लिये अपना तमंचा हाथ में, उस सुनसान सड़क पर एक भयानक साया चला जा रहा था... सब अपने-अपने घरों में बेखबर सो रहे थे, खर्राटे भरते हुए...

[खर्राटों की आवाज़]
[पृष्ठभूमि में संगीत]
[फर्श पर कुछ गिरने की आवाज़]

जग्गू: (हड़बड़ाकर) क्या गिरा? कौन है वहाँ?
[किसी के चलने की आवाज़]
जग्गू: (घबड़ाते हुए) ए... ए! क... कौन... है वहाँ? हैं! आँखों पर... काली नकाब... काली कमीज़… और यह काली पतलून? प...प... पि... पि... पिस्तौल। काला चोर, क... काला चोर... (घिघियाती आवाज़ में) च... चाचाजी... काला चोर... (और घिघियाकर) काला चोर ऊपर चढ़ रहा है। उ... उसके हाथ में पि... पि... पिस्तौल है। चाचाजी प... पकड़ो

[काले चोर के पास आने और जग्गू को एक लात मार कर उठाने की आवाज़]

काला चोर: (कड़क पर धीमी आवाज़ में) कौन है तू? उठ के बैठ, लड़के?
जग्गू: (रुआंसी आवाज़ में) मुझे छोड़ दो
काला चोर: चुप! एकदम चुप! बड़बड़ की तो गर्दन मरोड़ दूंगा। मुझसे रहम की उम्मीद मत रखियो, बताये देता हूँ। हाँ! कौन है तू, नाम बता... माल निकाल, नहीं तो अभी?
जग्गू: [घबराकर उठते हुए] मैं... मैं... मैं जग्गू ... मेरे पास कु... कुछ नहीं। बस यही कमीज... पा... पाजामा है। चाहे ले लो।
काला चोर: (डाँटकर ) चुप रे चमगादड़। क्या टिकियाचोट्टा समझा है मुझे? मैं काला चोर हूँ, कमीज-पाजामा नहीं लेता हूँ, मैं तो आदमियों की जान लेता हूँ, जान। यह देखता है भरी हुई पिस्तौल।
जग्गू: (धिग्धी बंध जाती है) म...म... मेरी जान... मत लो... मैं, मैं... मेरा... मेरे दोस्त... अभी आने वाले हैं। मैं तुम्हें नहीं रोकता। मैं तो अपने दोस्तों के साथ खेलने जा रहा था। मैंने तुम्हें नहीं देखा। मैं यहाँ नहीं था। सुनो, मुझे छोड़ दो। मैं तुम्हारे पाँव पड़ता हूँ। अपने कान पकड़ता हूँ। (रोने लगता है)
काला चोर: (हँसते हुए) अच्छा ढाई पसली। तुझे छोड़ दूंगा। अठन्नी-चवन्नी की चिल्लर को मारना मेरी हैसियत से नीचे की बात है। तुझे जाने दूंगा, मगर पहले मुझे यह बता कि तेरे चाचा की तिजोरी कहाँ पर है। हाँ अगर तूने नहीं बताया तो ज़रूर मैं तुझे जान से मार डालूंगा। (गुस्से में) बता तिजोरी कहाँ है, और उसकी चाभी लाकर मुझे दे, (ज़ोर से) अभी!  नहीं तो... फिर तू गया।
जग्गू: (घबराकर) हाँ हाँ, मैं अभी चाभी लाकर देता हूँ... मेरी जान छोड़ दो। (रोते हुए) तुम अगर मुझे मार डालोगे तो चाचाजी मुझसे बहुत नाराज होंगे। काले चोर की किताब भी मैं ही घर पर लाया इसलिये वे समझेंगे कि काले चोर को घर पर भी मैंने ही बुलाया होगा।
काला चोर: अच्छा, अच्छा। तू बहुत बोलता है। चाभी ला पहले।
[भागकर जाने, किवाड़ खुलने, चाभी के गुच्छेकी, और फिर, भागकर आने की आवाज़ें]
जग्गू: (हाँफ़ते हुए) ये लो चाभी,
काला चोर: चुपचाप लाया है न? किसी ने देखा तो नहीं
जग्गू: नहीं, हमारी अम्मा की कसम
काला चोर: फिर ठीक है। नहीं तो आज मेरे हाथ से एकाधा खून हो जाता यहीं

[तिजोरी खोलने की आवाज़]

काला चोर: अहा हा हा, ओहो हो हो। यहाँ तो बहुत गहने रखे हुए हैं। वाह जग्गू... वाह.... तूने तो बड़ी मजेदार चीज दिखाई। यह हार तो लाख रुपए से कम का न होगा। (हार उठाता है)
जग्गू: मगर ये हार रहने दो। तुम इसे ले जाओगे तो हमारी अम्मा क्या पहनेगी? अभी कल ही तो उनको मोती की शादी में पहनकर जाना है। तुम चाहो तो परसों आकर ये हार ले जाना। ठीक?
काला चोर: वाह मियाँ हमको ही चरका पढ़ाते हो? तुम तो हमारे भी चचा निकलोगे। परसों तक इसे यहीं रखा रहने दोगे? गायब नहीं कर दोगे... तुम्हारे साथ बहुत रियायत कर ली मैंने। बस आगे मत बढ़ना। नहीं तो खैर नहीं।
जग्गू: (घबराते हुए) नहीं नहीं, तुम इसे नहीं ले जा सकते। यह मेरी अम्मा का है (बू हू)
काला चोर: अच्छा, यह बात है। मैं तो अभी इसे लेकर जाता हूँ। ... दम है तो लो पकड़ लो मुझे...
जग्गू: (रुआँसा) रुक जाओ (स्वगत) चाचाजी का बेंत कहाँ है? मिल गया। ओए काले चोर, रुक जा! मेरी अम्मा का हार दे दे। मेरे हाथ में चाचाजी का बेंत है, अभी तेरा सिर फोड़ता हूँ।

[जग्गू और काला चोर की मारपीट / लाठी चलने की आवाज़]

काला चोर: (लड़ते हुए) नहीं मानता जग्गू तो फिर तेरी जान की खैर नहीं। पाजी, मैं तुझे बच्चा समझकर हल्के में ले रहा था। अब मैं तुझे जान से मार डालूंगा।
जग्गू: (लड़ते हुए) मैं पहले तुझे ही मार देता हूँ। यह ले मेरे डंडे का एक वार.....

[जोर से डंडा मारने की आवाज़]

काला चोर: (चिल्लाते हुए) आह! ओह मार डाला... मार डाला...हाय मर गए... यह ले बदमाश... मैं अभी तुझे गोली मारता हूँ

[पिस्तौल चलाने की आवाज़]

जग्गू: (कराहता हुआ) अरे, (रोकर) इसने तो सचमुच गोली मार दी ... इतना खून। अरे मर गया रे, मार डाला, मुझे मार डाला, गोली मार दी मुझे! चाचाजी... चाचा जी ... (बड़बड़ाते हुए) चाचा जी, मैं क्या करूँ, काला चोर घर में घुस आया था। वह जाने कैसे अपने आप आ गया। मैंने उसे नहीं बुलाया था। ... मैंने तो उसे डंडे से मारकर बेहोश कर दिया है। उसको पुलिस में पकड़वा दीजिएगा... उसके पास अम्मा का हार है... आपकी तिजोरी खुली पड़ी है। (ज़ोर से चिल्लाकर) चाचाजी उसने तो मुझे गोली मार दी है, … अब मैं नहीं बचूंगा, मैं मर जाऊंगा... आज मुझ पर गोली चल गई।

[कुंडी खटकने की आवाज़]

सुरेश: (गाता हुआ) अरे ओ भलेमानस जग्गू, कहाँ है?। तैयार नहीं हुआ क्या?
शीला: अंदर आ जाओ सुरेश

[कदमों की आवाज़]

सुरेश: जग्गू... ओ जग्गू, कहाँ है? अरे, ये सब क्या हो रहा है
जग्गू: (आधा सोया हुआ, आधा जगा हुआ)... सुरेश भाई, तुमने बहुत देर कर दी। अब चाचाजी के साथ मिलकर इस बेहोश पड़े काले चोर को जल्दी से पकड़ लो। मैंने इससे बहुत कहा कि मुझे मेला देखने जाना है, मगर इस बदमाश ने मुझे गोली मार ही दी। अब मैं नहीं बचूंगा। क्या करूँ?
सुरेश: (हँसते हुए) अरे किसने किसे गोली मार दी है? क्या बोल रहा है?

[शीला भी खिलखिलाकर हँसती है]

जग्गू: काले चोर ने... मैंने उसे पकड़ कर रखा है। यह देखो, बेहोश पड़ा है। तुम पुलिस को बुलाकर लाओ...
शीला: अरे जग्गू, यह तो तकिया है तू जिस पर लदा हुआ लेटा है यहाँ।
जग्गू: (गुस्से में) हैं? क्या कहती हो, काला चोर तुम्हें तकिया दिख रहा है?... तुम लोग मज़ाक समझ रहे हो? ध्यान से देखो (चौंककर) हैं, चोर नहीं, तकिया ही है। तो... (सोचते हुए) मतलब, मुझे गोली नहीं लगी... यहीं तो लगी थी गले के पास, मगर यहाँ तो कुछ नहीं है। मतलब, यह मेरा भ्रम था?
शीला: काला चोर काला चोर,  कहाँ छिप गया काला चोर? (हँसती है)
सुरेश: हत्तेरे की बौड़म! रात की कौन कहे, शाम से ही सपने देखने लगे... उठो, चलो, मेला देखने नहीं चलोगे?
जग्गू: (सोचते हुए) क्या यह सब सपना था? ... क्या मैं वाकई बौड़म हूँ? अगर मैं मरा नहीं तो फिर क्या मैंने काला चोर भी नहीं पकड़ा... यह कैसा... क्या माजरा है? (उछलकर) तो मैं जिंदा हूँ... मुझे कुछ नहीं हुआ, गोली नहीं लगी, मैं ज़िंदा हूँ। (गाकर) मैं बच गया हाय मेरे रामा, मुझे न इक खरोंच भी लगी

[सब हँसने लगते हैं।]

शीला: हाँ श्रीमान जग्गू महाशय, आप सही-सलामत जिंदा हैं। आप तशरीफ ले जाइये, शाम ढल रही है।
सुरेश: वाह, कमाल हो गया जग्गू। तुम जिंदा हो (हँसकर, गाते हुए) तुम ज़िंदा क्यों हो जग्गू, काला चोर किताबी क्यों है?

[सब फिर से हँसने लगते हैं।]

जग्गू: हाँ हाँ, चलो-चलो... क्या कहूँ, अब कभी भी शाम को ऐसी किताबें नहीं पढ़ा करूंगा।
सुरेश: जल्दी चलो, मेले के लिये देर हो रही है।
शीला: तुम कौन हो? कहाँ घुसे चले आ रहे हो?
सुरेश: धक्का क्यों दे रहे हो, चलने की तमीज़ नहीं है
जग्गू: कौन हो तुम, जंगली?
काला चोर: (आश्चर्य से) तुम लोग मुझे नहीं जानते? (फ़िल्म अभिनेता अजित के अंदाज़ में) सारा शहर मुझे ‘काला चोर’ के नाम से जानता है।

[सस्पेंस म्यूज़िक]اشاڻ پٺاڻ

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